Mera Ghosla

कल सुबह सवेरे नींद खुली,

कल सुबह सवेरे नींद खुली,
खिड़की से आती कलरव से।
सूरज भी वहीं था झांक रहा,
परदों के बुने झरोखों से।

जब आंख खुली मैंने देखा,
खिड़की पर एक गौरैया थी।
सूरज की आती किरणें थी,
चलती पवन पुरवईया थी।

मैंने उस नटखट से पूछा,
तुम गली- गली तो फिरती थी।
पर ऐसी भी क्या बदल गई,
अब कभी- कभी ही दिखती हो।

अरे माना तुमको काम बहुत,
तुम खाना पानी लाती हो।
छोटे बच्चों की खातिर तुम,
अपना घर भी बनाती हो।

पर पहले भी तो तुम आकर,
मुझको गीत सुनाती थी।
उस समय कहां से दाना पानी
तुम ले कर के आती थी?

अब इतना सुनकर वो बोली,
चलो मैं सबकुछ बतलाती हूं।
सुबह सवेरे गीत सुनाकर,
मैं क्यों नहीं उठाती हूं।

अब बाहर आकर तुम देखो,
मैं रहूं कहां दो जगह बता!
जिस घर में मैं थी रहती वहां,
एसी का अब डब्बा लगा!

जिस आंगन में दाना- पानी,
छोटे बच्चे भी गिराते थे,
वही बच्चे प्लास्टिक के
दोनॆ में खाना खाते हैं।

अब बोलो क्या मैं अपने बच्चों
को भी जहर खिलाऊं क्या?
या सबकुछ छोर के मैं
गांव लौट जाऊं क्या?

जहां अब भी घर की खिड़की में,
गेहूं के बाल दिखते हैं।
मेरे रहने के लिए वहां,
बांस के बल्ले दिखते हैं।

इस शहर के कोलाहल में मैं,
आखिर कैसे जीती हूं।
गांव भी अब खत्म हो रहे,
मैं बस आंसू पीती हूं।।

Poet : Shivam Anand Srivastava